अखबार बता रहे हैं कि ओएनजीसी के 42.78 करोड़ सरकारी शेयरों की नीलामी में से 40 करोड़ शेयर अकेले भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के खाते में गये हैं।
अटकलें लगायी जा रही हैं कि अगर सरकार ने बोली की न्यूमतम सीमा 290 रुपये के बदले कुछ कम रखी होती तो निवेशकों की दिलचस्पी ज्यादा होती। बेशक कुछ ज्यादा होती, लेकिन निवेशकों के फीके उत्साह की शायद यही अकेली वजह नहीं है। मैंने 29 फरवरी को भी यह सवाल रखा था कि सिवाय इस बात के कि ओएनजीसी में हिस्सेदारी बेचने से सरकार को अपना घाटा कम करने में कुछ मदद मिल जायेगी, इस विनिवेश से और क्या बदलने वाला है? क्या इससे ओएनजीसी के कामकाज में कोई बदलाव होगा? क्या इसके प्रबंधन को कुछ खुल कर काम करने की आजादी मिलेगी? क्या इससे पेट्रोलियम क्षेत्र के बारे में वे सरकारी नीतियाँ बदलेंगी, जिन्होंने न केवल ओएनजीसी बल्कि पूरे तेल-गैस क्षेत्र को भयानक जकड़न में बाँध रखा है?
इस नीलामी में निवेशकों की रुचि कम रहने की वजहें इन्हीं सवालों में शामिल हैं। बाजार में नकदी की कमी नहीं है, यह बात हमने बीते 2 महीनों में बखूबी देखी है। एमसीएक्स के आईपीओ में 54 गुना आवेदन आते भी देखा है। लेकिन अभी यह कुछ भी और किसी भी भाव पर बिक जाने वाला बाजार नहीं बना है। यह बात थोड़ा आश्वस्त ही करती है और बताती है कि हम अति-उत्साह के ऐसे दौर में नहीं आ गये, जहाँ खतरे की घंटी बजानी पड़े।
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माफ करें, गये नहीं हैं। एक तरह से जबरिया डाले गये हैं। इस नीलामी से सरकार 12,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम हासिल करने की उम्मीद कर रही थी। यह उम्मीद पूरी तो हो गयी है, लेकिन इस रकम का ज्यादातर हिस्सा एलआईसी की थैली से निकला है।
यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस नीलामी में इतनी बड़ी हिस्सेदारी करना एलआईसी का व्यावसायिक फैसला नहीं, बल्कि सरकारी आदेश पर अमल की मजबूरी है। एलआईसी को छोड़ दें तो 12,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की इस नीलामी में केवल 400 करोड़ रुपये की ही बोलियाँ बाकी निवेशकों से मिल रही थीं। ऐसे में सरकार के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वह इस नीलामी को नाकाम हो जाने देती, या फिर एलआईसी जैसी सरकारी नियंत्रण वाली संस्थाओं की जेब खाली करती। उसने दूसरा विकल्प चुनना बेहतर समझा।
यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस नीलामी में इतनी बड़ी हिस्सेदारी करना एलआईसी का व्यावसायिक फैसला नहीं, बल्कि सरकारी आदेश पर अमल की मजबूरी है। एलआईसी को छोड़ दें तो 12,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की इस नीलामी में केवल 400 करोड़ रुपये की ही बोलियाँ बाकी निवेशकों से मिल रही थीं। ऐसे में सरकार के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वह इस नीलामी को नाकाम हो जाने देती, या फिर एलआईसी जैसी सरकारी नियंत्रण वाली संस्थाओं की जेब खाली करती। उसने दूसरा विकल्प चुनना बेहतर समझा।
अटकलें लगायी जा रही हैं कि अगर सरकार ने बोली की न्यूमतम सीमा 290 रुपये के बदले कुछ कम रखी होती तो निवेशकों की दिलचस्पी ज्यादा होती। बेशक कुछ ज्यादा होती, लेकिन निवेशकों के फीके उत्साह की शायद यही अकेली वजह नहीं है। मैंने 29 फरवरी को भी यह सवाल रखा था कि सिवाय इस बात के कि ओएनजीसी में हिस्सेदारी बेचने से सरकार को अपना घाटा कम करने में कुछ मदद मिल जायेगी, इस विनिवेश से और क्या बदलने वाला है? क्या इससे ओएनजीसी के कामकाज में कोई बदलाव होगा? क्या इसके प्रबंधन को कुछ खुल कर काम करने की आजादी मिलेगी? क्या इससे पेट्रोलियम क्षेत्र के बारे में वे सरकारी नीतियाँ बदलेंगी, जिन्होंने न केवल ओएनजीसी बल्कि पूरे तेल-गैस क्षेत्र को भयानक जकड़न में बाँध रखा है?
इस नीलामी में निवेशकों की रुचि कम रहने की वजहें इन्हीं सवालों में शामिल हैं। बाजार में नकदी की कमी नहीं है, यह बात हमने बीते 2 महीनों में बखूबी देखी है। एमसीएक्स के आईपीओ में 54 गुना आवेदन आते भी देखा है। लेकिन अभी यह कुछ भी और किसी भी भाव पर बिक जाने वाला बाजार नहीं बना है। यह बात थोड़ा आश्वस्त ही करती है और बताती है कि हम अति-उत्साह के ऐसे दौर में नहीं आ गये, जहाँ खतरे की घंटी बजानी पड़े।
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स्रोत :शेयर मंथन